*भगवान बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज को गुलामी से मुक्ति की राह दिखाई, शहादत दिवस पर विशेष*
रांची : अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले आदिवासी समाज ने इसी झारखंड की भूमि पर आंदोलन किया था उसके बाद कहीं सिपाही विद्रोह हुआ था लेकिन सबसे पहले अंग्रेजों को आदिवासी नेतृत्व नहीं बेचैन किया था जब भगवान बिरसा मुंडा का समय आया तो उन्होंने समाज को संगठित कर गुलामी की वीडियो से मुक्ति का रास्ता बताएं बिरसा मुंडा ने सभी को संगठित होकर जोरदार आंदोलन का रास्ता भी दिखाया और नेतृत्व भी प्रदान किया। अंग्रेजों से लोहा लेने वाले आदिवासी समाज का योद्धा उस समय के कालखंड में होना एक बड़ी बात थी। कोई व्यक्ति ऐसे ही महान नहीं होता बल्कि बड़े काम और पवित्र उद्देश्य के लिए किए गए काम की वजह से वह महान कहलाता है। झारखंड ही नहीं पूरे आदिवासी समाज के लिए विशेष रूप से पूजनीय धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा भारत के स्वतंत्रता सेनानी थे। झारखंड में उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है।
*समाज को जागरूक किया बिरसा मुंडा ने*
भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को आज की तारीख में खूंटी के उलीहातू में हुआ था। बचपन से ही भगवान बिरसा मुंडा के अंदर विलक्षण प्रतिभा थी। अंग्रेजों के खिलाफ जनजातीय समाज को गोलबंद करने वाले बिरसा मुंडा में अलौकिक शक्ति भी निहित थी। जनजाति इतिहास में उनका एक अलग स्थान है। महज 25 साल की उम्र में उन्होंने शहादत दी। उन्होंने उन्हें अंग्रेजों ने दो बार गिरफ्तार किया था एक बार हजारीबाग जेल में रखा गया उसके बाद रांची जेल में रांची जेल में ही उनकी मौत हुई। अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करते हुए यह एक बड़ी शहादत थी। जनजातीय समाज के खौफ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके पार्थिव शरीर को उनके परिवार को नहीं सौंपा गया बल्कि आनन्द पालन में पोस्टमार्टम करके करके डिस्टलरी पुल के पास अंतिम संस्कार कर दिया गया।
धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का शहादत दिवस हर साल 9 जून को मनाया जाता है। यह दिन झारखंड और पूरे भारत में उनके बलिदान और आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिए उनके संघर्ष को याद करने का एक महत्वपूर्ण अवसर है। 9 जून, 1900 को रांची जेल में उनका निधन हो गया था।
भगवान बिरसा मुंडा एक करिश्माई नेता और लोक नायक थे जिन्होंने 19वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेजी हुकूमत और सामंती व्यवस्था के खिलाफ “उलगुलान” का नेतृत्व किया। उनका आंदोलन मुख्य रूप से छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासी समुदायों, विशेषकर मुंडा जनजाति के लोगों को एकजुट करने पर केंद्रित था।बिरसा मुंडा ने जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया, जिसे ब्रिटिश सरकार और स्थानीय जमींदार छीनने का प्रयास कर रहे थे।
जनजातीय नेतृत्व करने वाले बिरसा मुंडा ने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया, बल्कि उन्होंने सामाजिक और धार्मिक सुधारों की भी जोरदार वकालत की। उन्होंने अपने लोगों को अंधविश्वास से दूर रहने और अपनी पारंपरिक संस्कृति और मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रेरित किया। उनके अनुयायी उन्हें “धरती आबा” (पृथ्वी पिता) के रूप में पूजते थे।
वर्ष 1900 में 9 जून के दिन उनकी शहादत ने भले ही उनके भौतिक जीवन का अंत कर दिया, लेकिन उनके आदर्शों और बलिदान ने आदिवासी समुदायों में स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की लौ को प्रज्ज्वलित रखा। उनके आदर्श को उस समय के लोगों ने अंगीकार किया उनकी शहादत ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को ताकत दी ।बिरसा मुंडा को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक और आदिवासी गौरव के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। उनका शहादत दिवस हमें उनके संघर्ष और बलिदान को नमन करने और उनके दिखाए मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
*झारखंड के लोग उन्हें भगवान की तरह मानते हैं*
भगवान बिरसा मुंडा के नाम से इस क्षेत्र के लोग दशकों पहले से राजनीति या सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम का आगाज करते हैं। सरकार के लिए हमेशा से वे वंदनीय रहे हैं।यहां की राजनीति के बड़े मार्गदर्शक और प्रेरणा पुंज रहे।इसलिए हर सरकारी और सामाजिक यहां तक कि सांस्कृतिक कार्यक्रम में उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण होता रहा है। 9 जून को राजधानी रांची के कोकर स्थित भगवान बिरसा मुंडा के शहीद स्थल पर विशेष श्रद्धांजलि कार्यक्रम होता है। मालूम हो कि भगवान बिरसा मुंडा रांची जेल में ही शहीद हुए थे। भगवान बिरसा मुंडा को आज श्रद्धांजलि दी जा रही है। झारखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारत में भगवान बिरसा मुंडा को इस मौके पर याद किया जाता है।